June 26th, 2014
कल तलक मशहूर था, ये बाग़ फूलों के लिये
आज आरक्षित है कीकर और बबूलों के लिये
हादिसे इस शहर में पहले भी होते थे मगर
लोग लड़ते थे तो लड़ते थे उसूलों के लिये
करना होगा कितना पश्चाताप सोचा है कभी
आने वाली नस्ल को हम सबकी भूलों के लिये
बेटियाँ बाबुल के घर जब लौटती थीं तीज पर
टहनियाँ नीचे सरक आती थीं झूलों के लिये
Tags: Culture, Environment, Feminism, Nature, Philosophy, Poetry
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on Thursday, June 26th, 2014 at 8:58 pm and is filed under ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, बरगद ने सब देखा है.
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